राजस्थान के ऐतिहासिक व्यक्तित्व अर्नोराजा, इस क्षेत्र में चौहान वंश के दौरान एक प्रमुख शासक थे। उन्होंने राजस्थान के इतिहास को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अर्णोराज (Arnoraja) शाकम्बरी के चौहान राजवंश के प्रतापी राजा थे। इतिहास में इनको विभिन्न अन्य नामों जैसे अनलदेव, अन्ना, आवेल्लदेव, आनाक इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। अर्णोराज (Arnoraja) के पिता अजयराज द्वितीय (Ajayaraja II) और माता सोमल्लादेवी थीं। उनका जन्म वि. 1170 से पहले हुआ था, क्योंकि अजमेर का किला “गढ़ अनलिउ“, जिस पर उनका नाम अंकित है, का उल्लेख ‘जिनादतला-सूरी-स्तुली‘ में किया गया है। जिसकी एक पांडुलिपि वी. 1170 में कॉपी की गई थी।
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Toggleप्रारंभिक जीवन -
राजपूताने की खण्डित ‘गौहण प्रशस्ति‘ के अनुसार अजयराज-द्वितीय (Ajayaraja II) ने अपने पुत्र अर्णोराज (Arnoraja) को सिंहासन पर बैठाया और पवित्र झील पुष्कर से सटे जंगल में सन्यासी के रूप में सेवानिवृत्त हो गये। अर्णोराज वर्ष 1133 ई. में अपने पिता की मृत्युपरांत अजमेर की गद्दी पर बैठे और जनप्रिय शासन का संचालन किया।
रेवासा शिलालेख के दो शिलालेख, वि. 1196 (1139 ई.) जिसमें उनका उल्लेख ‘महाराजाधिराज-पर-सीमेस्यारा-श्री-अर्नोराज अदेव‘ (Maharajadhiraja-Parameshvara) के रूप में किया गया है। अन्य ऐतिहासिक पुस्टि के रूप में चक्रेश्वर का शातकबृहदभा, दिनांक वि. 1197, जिसके कोलोफ़ोन में उनका उल्लेख ‘नृपाली अनलदेव‘ ‘सिद्धराज का पसद्यमेह‘ के रूप में किया गया है।
एक और ऐतिहासिक पुस्टि के रूप में अवश्यक-निर्युक्ति/आओस्याकिनिरुकली (Avashyaka-Niryukti) की पांडुलिपि का कोलोफ़ोन (अजमेर के एक उपनगर पृथ्वीपुरा में प्रतिलिपि बनाई गई), जो है वी. 1198 ई. (1141 ई.) में दिनांकित है और उस पर इनको ‘परमभट्टारक-महाराजधिराज-संमद-हृणोत‘ के रूप में उल्लेख है।

अर्णोराज शाकम्बरी के चौहान राजवंश के प्रतापी राजा थे। इतिहास में इनको विभिन्न अन्य नामों जैसे अनलदेव, अन्ना, आवेल्लदेव, आनाक इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। अर्णोराज के पिता अजयराज द्वितीय और माता सोमल्लादेवी थीं। उनका जन्म वि. 1170 से पहले हुआ था, क्योंकि अजमेर का किला “गढ़ अनलिउ”, जिस पर उनका नाम अंकित है, का उल्लेख जिनादतला-सूरी-स्तुली में किया गया है। जिसकी एक पांडुलिपि वी. 1170 में कॉपी की गई थी।
सैन्य जीवन (Arnoraja)-
बिजोलिया अभिलेख के अनुसार मालवा के नरवर्मन को अजयराज एवं उसके पुत्र और उत्तराधिकारी, अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) द्वारा पराजित किया गया था। अर्नोराजा की मृत्यु वि. 1207 और वि. 1210 के बीच हुई।
इसीलिए 1139 ई. के दो रेवासा शिलालेखों में अर्नोराजा चाहमान (अर्णोराज Arnoraja) की उपाधि ‘महाराजाधिराज-परमेश्वर‘ (Maharajadhiraja-Parameshvara) के रूप में उल्लिखित है। अवश्यक-निर्युक्ति की 1141 ई.पू. पांडुलिपि में उनकी उपाधि ‘परमभट्टारक-महाराजाधिराज-श्रीमद‘ के रूप में उल्लिखित है। अर्णोराज (अर्नोराजा चाहमान) की सेना में कई जाट योद्धा सैन्यपति शामिल थे जिन्होंने आगे चलकर अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज तृतीय तक उनकी कई विजयो में वीरता पूर्वक साहस दिखाया।
उपलब्धियाँ – शाकम्बरी के चौहान राजवंश के प्रतापी राजा अर्णोराज के बारे में अजमेर संग्रहालय में स्थित खंडित चौहान प्रशस्ति में अर्णोराज (अर्नोराजा) की निम्नलिखित उपलब्धियों का विशेष उल्लेख किया हुआ है –
1. अजमेर के निकट अर्णोराज (अर्नोराजा) के द्वारा तुरुस्कों (Turuskas) का वध।
2. मालवा के राजा नरवर्मन को पराजय किया।
3. चौहानों के द्वारा सिंधु और सरस्वती तक हथियार ले जाना और सीमा पर पहरेदारी कर सुरक्षा करना।
4. हरितनाका देश में चलाया गया एक विशेष अभियान। पालम बाओल शिलालेख के अनुसार हरितानका यानी हरियाणा है।
5. दिल्ली पर चौहानों की विजय से पहले तोमरों का शासन था। चौहान प्रशस्ति में अर्नोराजा और दिल्ली के तोमरों के बीच की लड़ाई का संदर्भ है जिसमें वे बुरी तरह हार गए, हालांकि निर्णायक रूप से नहीं क्योंकि संघर्ष जारी रहा, जैसा कि हम देखेंगे, कम से कम विग्रहराज चतुर्थ के शासनकाल तक।

परमारों से संघर्ष -
बिजोलिया शिलालेख के अनुसार अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) ने नरवर्मन (Narvarman of Malwa) को अपमानित किया, जो परमार शासक नरवर्मन का प्रतीक था। अर्नोराजा के पिता अजयराज द्वितीय ने नरवर्मन को हराया था, इसलिए यह घटना तब हुई होगी जब अर्नोराजा राजकुमार थे। ये दुश्मनी लम्बे समय तक चली। हालांकि ध्यान रहे इसकी पुष्टि हेतु अजमेर प्रशस्ति (स्तुति) का शिलालेख भी नरवर्मन के उल्लेख से शुरू होता है, लेकिन ये पूरा नहीं है अधरा है। चार पंक्तियों के बाद, इसमें कहा गया है कि अर्नोराजा के योद्धाओं ने मालवा राजा (मालवेश) के हाथियों को पकड़ लिया। जो कि एक घोर अपमान था।
इतिहासकार दशरथ शर्मा का भी यही मानना है कि मालवा का यह राजा नरवर्मन था। हालांकि अन्य इतिहासकार आर.बी. सिंह के अनुसार, अजमेर प्रशस्ति (स्तुति) का शिलालेख संभवतः नरवर्मन के उत्तराधिकारी यशोवर्मन के खिलाफ अर्नोराजा की सैन्य सफलता को संदर्भित करता है। लेकिन इससे चौहानों और परमारों के बीच सैन्य संघर्ष सिद्ध होता है।
तोमरों से संघर्ष -
चौहान शासक अर्नोराजा (अर्णोराज) (Arnoraja) को दिल्ली के तोमर (Tomar) शासकों से भी संघर्ष करना पड़ा। इसकी पुष्टि हेतु अजमेर प्रशस्ति शिलालेख में यह कहा गया है कि अर्नोराजा (अर्णोराज) के सैनिकों ने हरितनाका (हरियाणा) तक दिल्ली पर चढ़ाई हेतु सैन्य मार्च किया। इस विशाल सैन्य अभियान के दौरान राश्ते में पड़ने वाली कालिंदी नदी का साफ पानी गंदा हो गया जिसका कारण आक्रमण एवं नदी को विशाल सेना द्वारा पार किये जाने के कारण हो सकता है। और हरितनाका (हरियाणा) की महिलाओं के आँसू बहने लगे।
ऐसा प्रतीत होता है कि यह अर्नोराजा के द्वारा दिल्ली के तोमर साम्राज्य पर आक्रमण का संदर्भ है। इस आक्रमण का परिणाम पूर्णतः स्पष्ट नहीं है ऐसा लगता है कि अर्नोराजा (अर्णोराज) ने तोमरों को या तो युद्ध में हरा दिया था या इस युद्ध की जीत निर्णायक नहीं रही होगी, क्युकि अगर अर्नोराजा (अर्णोराज) ने तोमरों को हरा दिया होता तो आगे चलकर अर्नोराजा (अर्णोराज) के बेटे विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) को तोमरों के खिलाफ क्यों लड़ना पड़ा था।
तुर्को से संघर्ष -
अजमेर प्रशस्ति शिलालेख के अनुसार अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) ने अजमेर को तुर्क सेना (Turkish invaders) के खून से रंग दिया। ‘पृथ्वीराज विजया‘ में भी इस बारे में कहा गया है कि अर्नोराजा (अर्णोराज) ने मुस्लिम (तुर्किश) आक्रमण को विफल कर दिया। ये आक्रमणकारी रेगिस्तान से होकर आये थे और अपने लम्बे अभियान के दौरान पानी के अभाव ने तुर्किश सैनिकों को कमजोर कर दिया यहाँ तक कहा जाता है कि कुछ तुर्किश सैनको को बंदी बना लिया गया और उन्होंने बताया कि इस अभियान के दौरान पानी की कमी से तुर्किश सैनिकों को अपने घोड़ों तक का खून पीना पड़ा था।
हालांकि तुर्किश सेना बहोत विशाल थी और अधिकांशतः तुर्किश मुस्लिम सेना अजमेर पहुंचने में सफल हो गई। और चौहानों और तुर्किश सेनाओं के बीच में नागपहाड़ी के पास के एक मैदान में घोर युद्ध हुआ। कई राजपूत एवं जाट योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। अंततः चौहान विजयी हुए। इस जीत की खुशी में अजमेर में जश्न मनाया गया। हजारों मुस्लिम आक्रमणकारी मैदान छोड़कर वापस भाग गए लेकिन लौटते समय फिर से उनको रेगिस्तान की गर्म मौत के आगोश का सामना करना पड़ा और रेगिस्तान में ही मर गए।
कालांतर में रेगिस्तान में अभी भी उन तुर्किश मुस्लिम सैनिकों के अवशेष मिलते हैं जिनके आधार पर कहा जाता है कि उनके रक्षा कवच बहोत भारी थे और एक बहोत लम्बी यात्रा तथा पानी की कमी ने उनको कमजोर कर दिया था।
लेकिन इन आक्रमणकारियों को हराने के बाद, लाखों मुस्लिम सैनिकों के मृत शरीर के ढेर युद्ध मैदान में लग गए। अर्नोराजा ने एक झील बनवाकर उनकी मृत्यु के स्थान को शुद्ध किया, जिसे आधुनिक अनासागर झील (आनासागर) के नाम से पहचाना जाता है। इस झील को चंद्रा नदी के पानी से भरा गया था, जिसे आधुनिक ‘बांडी नदी’ के नाम से पहचाना जाता है।
इस युद्ध के कारणों पर, अलग अलग इतिहासकार अपना अलग अलग मत प्रकट करते हैं जैसे इतिहासकार एच. सी. रे ने माना हैं कि अर्नोराजा (अर्णोराज) द्वारा पराजित मुस्लिम आक्रमणकारी लाहौर के यामिनी (गजनवी) राजा ‘बहराम शाह’ के सेनापति थे।
जबकि 13वीं सदी के मुस्लिम इतिहास ग्रन्थ ‘तबकात-ए नासिरी‘ में कहा गया है कि ‘मुहम्मद बहलीम’ नाम के एक सरदार ने एक बार ‘बहराम शाह’ के खिलाफ विद्रोह किया था। कहा जाता है कि मुहम्मद बहलीम ने नागौर किले का निर्माण कराया था। ‘बहराम शाह’ ने ‘मुहम्मद बहलिम’ को हराने के लिए भारत की ओर कूच किया, मुहम्मद बहलीम भी अपनी सेना के साथ नागौर से निकला। दोनों सेनाएँ मुल्तान में मिलीं, जहाँ ‘मुहम्मद बहलीम’ पराजित हुआ और मारा गया।
जबकि एक और इतिहासकार आर.बी. सिंह ने अपना मत प्रकट किया है कि जब ‘मुहम्मद बहलीम’ ने ‘बहराम शाह’ के खिलाफ विद्रोह किया, तो मुहम्मद बहलीम ने चाहमानों से शरण मांगी। अर्नोराजा (अर्णोराज) ने उसे शरण प्रदान की। इससे बहराम शाह नाराज हो गया और उसने अजमेर पर आक्रमण कर दिया, लेकिन हार गया। बहराम शाह की इस हार को मुस्लिम इतिहास ग्रन्थ ‘तबकात-ए नासिरी‘ में दर्ज करने से बचने के लिए मुस्लिम इतिहास ने संभवतः इस घटना को छोड़ दिया गया होगा।
चालुक्यों से संघर्ष -
अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) के शासनकाल में भी चाहमान-चालुक्य (Chaulukya सोलंकी) संघर्ष का पुनरुद्धार देखा गया, ये एक तरीके का शीत युद्ध (भू-राजनीतिक तनाव) था। ये संघर्ष संभवतः मालवा के कमजोर हो रहे परमार साम्राज्य को नियंत्रित करने के उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुआ था।
जयसिम्हा चालुक्य से संघर्ष -
कीर्ति कौमिदी (13वीं शताब्दी के कवि सोमेश्वर द्वारा लिखा गया एक ग्रंथ) के अनुसार, गुजरात के चालुक्य राजा जयसिम्हा Jayasimha (अन्य नाम जगधेकमल्ला प्रथम और मल्लिकामोदा) ने अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) को युद्ध में हराया लेकिन यह भी कहा कि वैवाहिक गठबंधन के साथ जयसिम्हा ने अपनी बेटी कंचना की शादी अर्नोराजा (अर्णोराज) से की थी। अर्नोराजा और कंचना के पुत्र ‘सोमेश्वर’ का पालन-पोषण भी गुजरात के चालुक्य दरबार में हुआ था।
वैवाहिक गठबंधन ने संभवतः थोड़े समय के लिए संघर्ष को समाप्त कर दिया, लेकिन जयसिम्हा की मृत्यु के बाद चालुक्य-चाहमान संघर्ष फिर से शुरू हो गया। सांभर (शाकंभरी) के शिलालेख में भी चालुक्यों के मूलराजा से लेकर जयसिम्हा तक चालुक्य राजाओं की वंशावली प्रदान करता है। इसमें सांभर का उल्लेख है, जो इंगित करता है कि जयसिम्हा का कुछ समय के लिए चाहमानों की राजधानी पर भी कब्जा रहा होगा।
कुमारपाल चालुक्य से संघर्ष -
जयसिम्हा चालुक्य (चौलुक्य या सोलंकी) की मृत्यु के बाद, उनके नामित और दत्तक पुत्र चाहदा (बहाड़ा या चारुदत्त भी) और उनके रिश्तेदार कुमारपाल (Kumarapala) के बीच उत्तराधिकार का युद्ध हुआ। चाहदा ने अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) और अन्य राजकुमारों के साथ गठबंधन बनाया, और उन्हें कुमारपाल से लड़ने के लिए उकसाया, जैसा कि दव्याश्रय, कुमारपाल चरित और प्रबंध-चिंतामणि सहित कई स्रोतों से प्रमाणित है।
प्रबंध चिंतामणि के लेखक मेरुतुंग के अनुसार, अर्नोराजा ने गुजरात पर हमला किया क्योंकि वह कुमारपाल को जयसिम्हा की तुलना में कमजोर शासक मानते थे। इतिहासकार ए.के. मजूमदार का अनुमान है कि अर्नोराजा ने कुमारपाल की जगह अपने बेटे सोमेश्वर को लाने की योजना बनाई होगी।
कुमारपाल चरित के अनुसार, युद्ध के दौरान अर्नोराजा के चेहरे पर एक तीर लगा और उनकी इस युद्ध में हार हुई। उसके बाद पूर्व की तरह ये युद्ध भी एक वैवाहिक गठबंधन के साथ समाप्त हो गया। अर्नोराजा ने अपनी बेटी जाहलाना से कुमारपाल की शादी कर दी। और बदले में कुमारपाल की बहन देवल्लादेवी ने भी अर्नोराजा से शादी की। संघर्ष के बावजूद, कुमारपाल ने अर्नोराजा के बेटे सोमेश्वर (जो चालुक्यों के साथ रहता था) के साथ अच्छा व्यवहार किया।
1150 ई.पू. के आसपास, अर्नोराजा और कुमारपाल के बीच दूसरा युद्ध हुआ था। यह दूसरा युद्ध भी अर्नोराजा की हार के साथ समाप्त हुआ। कुमारपाल की अर्नोराजा पर जीत की पुष्टि भी कई चौलुक्य (चालुक्य या सोलंकी) शिलालेखों से होती है।
अन्य सैन्य अभियान -
बिजोलिया शिलालेख में कहा गया है कि अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) ने कुश-वरन (कुशा-वरन) साम्राज्य के खिलाफ युद्ध किया। कुशा की पहचान कन्नौज से और वारणा की पहचान बुलन्दशहर से है। इतिहासकार आर.बी. सिंह के अनुसार कन्नौज पर गहड़वाला राजवंश (गढ़ावाला) राजा गोविंदचंद्र का शासन था। अजमेर प्रशस्ति शिलालेख में कहा गया है कि अर्नोराजा सिंधु और सरस्वती नदियों तक पहुँच गया। अन्य जानकारी के अभाव में, इस अभियान का विवरण स्पष्ट नहीं है।
झील एवं मंदिर निर्माण -
अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) ने अपने जीवन में आनासागर झील एवं वराह मंदिर का निर्माण करवाया। जिसको नीचे विस्तार पूर्वक बताया गया है।
आनासागर झील निर्माण -
चौहान राजवंश के प्रतापी राजा अर्णोराज (अर्णोराज Arnoraja) का राज्य काफी समय से तुर्क आक्रमणकारियों के आक्रमण से परेशान था। तुर्को के आक्रमण से कई बार भयाभय युद्ध हुए एवं लाखों सैनिकों का नरसंहार हुआ। कई विदेशी इतिहासकारों का मत है कि एक बार तुर्को की विशाल सेना और चौहानों के बीच में भयंकर युद्ध हुआ फलस्वरूप लाखों सैनिकों की लाशों के ढेर जंग के मैदान में हर जगह लग गए।
मैदान से कुछ दिनों के पश्चात लाशों के ढेर के सड़ने से वायु के द्वारा पूरे राज्य में बदबू की गंध से सभी परेशान हो गए। कई महीनों के इन्तजार के बाद भी जब लाशों के ढेर की बदबू की गंध नहीं गई तो राज्य के मंत्रिमंडल ने इसका उपाय सोचा और तय किया कि लूणी और चंद्रा (प्राचीन नाम इन्दु नदी) का जल इस युद्ध के मैदान में छोड़ दिया जाए। इसके लिए नागपहाड़ एवं तारागढ़ के बीच में लूणी और चंद्रा नदी का जल लाने के लिए निकास बनाया गया और मैदान के बीचो बीच पाताल तोड़ कृत्रिम झील बनाई गई। और अंत में 1137 ई. में लूणी और चंद्रा नदी का जल उस मैदान में आ गया और पूरा मैदान एक विशाल जलमग्न झील बन गया।
इस झील का नाम अर्णोराज उर्फ़ आनाजी के नाम पर ‘आनासागर झील‘ रखा गया। इस झील के निर्माण के बाद लाशों के ढेर की बदबू की गंध गायब हो गई और इस आनासागर झील ने राज्य की प्रवेश सीमा में घुसने के लिए एक बाधक या अवरोधक का भी काम किया। तब से एक लोकोक्ति लोगो के बीच में प्रसिद्द है कि आनासागर झील का निर्माण 137 ई. “तुर्को से रक्तरंजित भूमि को साफ़ करने के लिए किया गया”। चौहान प्रशस्ति की पंक्ति 15 भी देखें जिसमें कहा गया है, “तुरुजकों के खून से लथपथ अजमेर की भूमि ऐसी लग रही थी मानो उसने अपने स्वामी की जीत का जश्न मनाने के लिए गहरे लाल रंग की पोशाक पहन ली हो।
चौहान वंश के राजा अर्णोराज (अर्नोराजा) ने बजरंग गढ़ से रामप्रसाद घाट तक एक मजबूत पाल का निर्माण करवाया और तुर्क युद्ध स्थल के मैदान में झील के लिए खुदाई करवाई। झील में पानी जमीन से, और लूणी – चंद्रा नदी से एवं बरसाती पानी नाग पहाड़ी से बहकर पहुँचता है। वर्तमान में फॉयसागर झील का पानी भी ओवरफ्लो होकर बांडी नदी के जरिये आनासागर झील (अनासागर) तक पहुँचता है। पूर्व में इस आनासागर झील का भराव क्षेत्र नीचे नौसर, एवं चामुंडा माता से कोटड़ा तक था।

वराह मंदिर निर्माण -
अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) शैव अनुयायी थे। लेकिन अन्य संप्रदायों के साथ भी उनके संबंध मधुर थे। उन्होंने पुष्कर में वराह (विष्णु) का एक मंदिर बनवाया और अजमेर में एक मंदिर के निर्माण के लिए खरतारा गच्छभ के अनुयायियों को भूमि का एक विस्तृत भूखंड दान दिया। भागवत शिक्षक, देवबोध को उनके दरबार में एक सम्मानित स्थान प्राप्त था। स्वेडंबर विद्वान, धर्मघोष सूरी ने अपने दिगंबर प्रतिद्वंद्वी, गुणचंद्र को हराकर उनसे जयपत्र प्राप्त किया था।

मृत्यु (Arnoraja) -
अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) की मृत्यु – अर्नोराजा के चार बेटे सोमेश्वर, जगद्देव, विग्रहराज चतुर्थ और देवदत्त थे। इनमें से सोमेश्वर का जन्म गुजरात की चालुक्य राजकुमारी कंचना से हुआ था। अन्य दो मारवाड़ की राजकुमारी सुधावा से पैदा हुए थे। अंतिम का जन्म चौलुक्य राजकुमारी कहचानादेवल से हुआ था।
हेमचंद्र सूरि की पराशक्ति से वशीभूत होकर जगद्देव (मनवर के सुधाव) ने अपने पिता अर्नोराजा की हत्या कर दी और कुछ समय के लिए चाहमान सिंहासन पर कब्जा कर लिया। इसलिए जगद्देव को चौहान (चाहमान) राजवंश का प्रथम पितृहन्ता (पिता की हत्या करने वाला) कहा गया है।
इससे पहले कि जगद्देव राज्य में अपनी स्थिति मजबूत कर पाते, उनके छोटे भाई विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) ने उन्हें गद्दी से उतार दिया और विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव) नए चाहमान राजा बन गए। पृथ्वीराज विजया में जगद्देव को एकमात्र चाहमान शासक के रूप में वर्णित किया गया है जिसने स्वर्ग प्राप्त नहीं किया क्युकि जगद्देव ने अपने पिता अर्नोराजा की हत्या कर दी थी।
निष्कर्ष -
कुमारपाल के हाथों हार के बावजूद, अर्नोराजा (अर्णोराज Arnoraja) अपने वंश के महान शासकों में से एक माने जाने योग्य हैं। उन्होंने मालवा, हरियाणा और अपने क्षेत्रों की सीमा से लगे अन्य भूभागों पर अपने अभियानों द्वारा अपने लोगों और अपने राज्य के क्षेत्र की महिमा को बढ़ाया। लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि गजनवियों की निर्णायक हार थी जिसने उन्हें लगभग बीस वर्षों तक सपादलक्सा से दूर रखा और इस तरह न केवल सपादलक्सा की बल्कि गुजरात और अन्य राज्यों की भी शांति और समृद्धि सुनिश्चित की, जिनका रास्ता अर्नोराजा के प्रभुत्व से होकर जाता था।