चौहान राजवंश का परिचय
Chauhan Dynasty Wikipedia Article
चौहान राजवंश का परिचय || प्रतियोगी परीक्षा हेतु लेख –
राजकवि ‘जयानक‘ ने चौहानों को ‘चहमान/चाहमान/चेहमान‘ वंश के किसी आदिपुरुष का वंशज बताया है। ध्यान रखिये जयानक (‘जयनक’/’जगनक’) पृथ्वीराज चौहान के राजकवि थे। ये ‘पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम्‘ के रचयिता थे। इनके बारे में भी हम आगे चलकर विस्तार से चर्चा करेंगे। ध्यान रखिये RPSC एवं RSMSSB ने अभी तक जो भी प्रश्न परीक्षाओं में पूछे हैं वो यहीं से पूछे गए हैं। इसलिए इन नोट्स को मन लगाकर अच्छे से पढ़िए।
चौहानों की उत्पत्ति – चौहानों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न कवियों एवं विद्वानों सहित इतिहासकारों ने अलग अलग मत दिए हैं। जो निम्न प्रकार हैं। –
(i) अग्निकुंड से – सूर्यमल मिश्रण, मुहता नैणसी, पृथ्वीराज रासो के अनुसार।
(ii) सूर्यवंशी – डॉ गौरीशंकर हीराचंद ओझा, हम्मीर रासो महाकाव्य, बेदला शिलालेख, एवं पृथ्वीराज विजय के अनुसार।
(iii) इन्द्र के वंशज – रायपाल के सेवाडी के अभिलेख में चौहानों को इन्द्र का वंशज बताया है।
(iv) शक (विदेशी) – कर्नल जेम्स टॉड, वीए स्मिथ, विलियम क्रुक ने इनको स्किथी लोगों की एक जनजाति बताया है।
(v) ब्राम्हण वंशी – डॉ दशरथ शर्मा, डॉ गोपीनाथ शर्मा, बिजोलिया शिलालेख के अनुसार।
(vi) चंद्र वंशी – हांसी शिलालेख, अचलेश्वर मंदिर लेख के अनुसार।
राजस्थान में चौहानों की शुरुआत –
चौहान राजवंश की स्थापना 551 ई. में सपादलक्ष (सांभर) में ‘वासुदेव चौहान‘ ने की थी। हमारे अभिलेखों में उल्लिखित सपादलक्ष वंश का पहला शासक वासुदेव है।
‘अर्ली चौहान डायनेस्टीज‘ (डॉ दशरथ शर्मा) ने ‘बिजोलिया शिलालेख’ के आधार पर सपादलक्ष (सांभर) में स्थापना के बाद इनकी राजधानी को ‘अहिच्छत्रपुर’ (नागौर) बताया है। डॉ. दशरथ शर्मा मानते हैं कि चौहान के प्रारंभिक पूर्वज ऋषि वत्स के गोत्र में अहिच्छत्रपुर में पैदा हुए थे। अहिच्छत्रपुर आधुनिक ‘नागौर’ शहर है।
प्रारम्भ में चौहान, गुर्जर प्रतिहार शासकों के यहाँ सामंत थे।
दसवीं शताब्दी में चौहान वंश के शासक ‘गुवक – प्रथम‘ ने सीकर में ‘हर्षनाथ शिव मंदिर का निर्माण’ प्रारम्भ किया जिसे उसके उत्तराधिकारी सिंघराज ने पूर्ण करवाया। लेकिन इसमें शिवलिंग की स्थापना चौहान वंश के शासक ‘सन्दीपीट चौहान’ (Sandipita) इस मुख्य मंदिर का निर्माण शिल्पकार ‘चंडशिव’ के निर्देशन में किया गया था।
चौहान वंश के शासकों वंशावली का क्रम –
- वासुदेव
- गुवक
- सिंहराज
- विग्रहराज द्वितीय
- पृथ्वीराज – I
- अजयराज
- अर्णोराज
- विग्रहराज चतुर्थ (बीसलदेव)
- पृथ्वीराज – II
- सोमेश्वर
- पृथ्वीराज – III (अंतिम हिन्दू राजा)
अगली पोस्ट में मैंने एक एक करके उपरोक्त चौहानों वंश के शासकों को विस्तार से पढ़ाया है। अगली पोस्ट पर जाने के लिए नीचे बटन पर क्लिक करिये।
Chauhan Dynasty Article for competitive examination –
Jayanak has described the Chauhans as the descendants of some ancestor of the ‘Chahman /Chahman/Chehman’ dynasty. Keep in mind that Jayanak (‘Jayanak’ or ‘Jaganak’) was the royal poet of Prithviraj Chauhan. He was the author of ‘Prithvirajvijay mahakavya’. We will also discuss these in detail later. Keep in mind that all the questions that RPSC and RSMSSB have asked so far in the examinations have been asked from here. Therefore, read these notes carefully.
Origin of Chauhans – Historians including different poets and scholars have given different opinions regarding the origin of Chauhans. Which are as follows. ,
(i) From Fire Pit – Suryamal Misran, according to Muhta Nainsi, Prithviraj Raso.
(ii) Suryavanshi – According to Dr. Gaurishankar Hirachand Ojha, Hammir Raso epic, Bedala inscription, and Prithviraj Vijay.
(iii) Descendants of Indra – In the records of Sevadi of Raipal, Chauhans have been described as descendants of Indra.
(iv) Shakas (Foreigners) – Colonel James Todd, VA Smith, William Crook have described them as a tribe of Scythian people.
(v) Brahmin clan – Dr. Dashrath Sharma, Dr. Gopinath Sharma, according to Bijolia inscription.
(vi) Chandra Vanshi – As per Hansi inscription, Achaleshwar temple inscription.
Beginning of Chauhans in Rajasthan –
Chauhan dynasty was established by ‘Vasudev Chauhan’ in Sapadalaksha (Sambhar) in 551 AD. The first ruler of the Sapadalaksha dynasty mentioned in our inscriptions is Vasudeva.
Early Chauhan Dynasties (Dr. Dashrath Sharma) on the basis of Bijolia inscription, after establishment in Sapadalaksha (Sambhar) have described their capital as Ahichchhatrapur (Nagaur). Dr. Dashrath Sharma believes that the early ancestors of Chauhan were born in Ahichchhatrapur in the gotra of Rishi Vatsa. Ahichchhatrapur is the modern Nagaur city.
Initially Chauhans were feudatories of Gurjar Pratihar rulers. Please note that the present day Gurjar caste is not related to the Gurjar Pratihar dynasty.
In the tenth century, the ruler of Chauhan dynasty ‘Guvak-I’ started the construction of Harshnath Shiva temple in Sikar, which was completed by his successor Singhraj. But in this Shivlinga was established by the ruler of Chauhan dynasty ‘Sandipita Chauhan’ (Sandipita). This main temple was constructed under the direction of the sculptor ‘Chandashiv’.
The order of main rulers of Chauhan Dynasty –
- Vasudev
- Guvak
- Singhraj
- Vigraharaja II
- Prithviraj-I
- Ajayraj
- Arnoraj
- Vigraharaja IV (Bisaladev)
- Prithviraj-II
- Someshwar
- Prithviraj – III (Last Hindu King)
In the next post, I have taught the above mentioned Chauhan dynasty rulers in detail, one by one. Click on the button below to go to the next post.
चौहान राजवंश से सम्बंधित नए महत्वपूर्ण तथ्य -
Important facts related to Chauhan Dynasty -
जयानक भट (जयनक / जगनक) पृथ्वीराज चौहान के राजकवि थे। ये ‘पृथ्वीराजविजय’ महाकाव्य के रचयिता थे। कश्मीर से चलकर ‘चाहमान’ दरबार में वह तराइन (तरावड़ी/ टेरेंन) के प्रथम युद्ध 1191 के पूर्व आये थे। हालांकि चाहमान दरबार में पहले से राजकवि ‘पृथ्वीभट्ट’ उपस्थित थे। इसमें तराइन (तरावड़ी/ टेरेंन) के प्रथम युद्ध में की विजय का वर्णन है। इसमें तराइन (तरावड़ी/ टेरेंन) के द्वितीय युद्ध का उल्लेख नहीं है।
जयानक भट (जयनक / जगनक) की प्रसिद्ध संस्कृत पुस्तक ‘पृथ्वीराज-विजय’ सम्भवतः 1192-1193 के बीच लिखी गयी थी। इसमें पृथ्वीराज को विष्णु का अवतार और राम के समान सूर्यवंशी बतलाया गया है। ‘पृथ्वीराजविजय महाकाव्य’ की एकमात्र पांडुलिपि भोजपत्र पर शारदा लिपि में लिखी हुई मिली है।
इस महाकाव्य में 12 सर्ग हैं। इसकी खोज 1875 में ‘जॉर्ज बुहलर’ ने की थी जब वे कश्मीर में संस्कृत पांडुलिपियों की खोज कर रहे थे। पांडुलिपि अत्यधिक कटी-फटी है, और इसके कई भाग जैसे कि लेखक का नाम इत्यादि इसमें से गायब हैं। कश्मीरी विद्वान जयरथ ने अपनी ‘विमर्षिणी’ (1200 ई) में इस काव्य को उद्धृत किया है। इसलिए इस तिथि से पहले निश्चित रूप से इसकी रचना हो चुकी थी। इस महाकाव्य में तराइन के प्रथम युद्ध और उसमें पृथ्वीराज की विजय का उल्लेख है, लेकिन तराइन के द्वितीय युद्ध और उसमें पृथ्वीराज की पराजय का वर्णन नहीं है।
तराइन (तरावड़ी/ टेरेंन) का युद्ध (1191 और 1192) अथवा युद्धों की एक ऐसी शृंखला है, जिसने पूरे उत्तर भारत को मुस्लिम नियंत्रण के लिए खोल दिया। ये युद्ध मोहम्मद गौरी (मूल नाम: मुईज़ुद्दीन मुहम्मद बिन साम) अफगानिस्तान और अजमेर तथा दिल्ली के चौहान (चहमान) राजपूत शासक पृथ्वीराज तृतीय के बीच हुये।
Jayanak Bhat, also known as Jayanak or Jaganak, served as the royal poet in the court of Prithviraj Chauhan. He is renowned as the author of the epic literary work known as ‘Prithvirajvijay.’ Originally hailing from Kashmir, Jayanak made his way to the court of the ‘Chahman’ dynasty just before the momentous first Battle of Tarain in 1191. It’s important to note that another accomplished royal poet named ‘Prithvibhatta’ was already present in the Chahamana court. Jayanak’s ‘Prithvirajvijay’ eloquently narrates the triumph of Prithviraj in the first Battle of Tarain (also spelled Taravadi or Terrain) while notably omitting any mention of the second Battle of Tarain.
The famous Sanskrit opus, ‘Prithviraj-Vijay,’ penned by Jayanak Bhat, is believed to have been composed between the years 1192 and 1193. Within this literary masterpiece, Prithviraj is depicted as an incarnation of Vishnu and is likened to the Suryavanshi lineage, similar to Lord Rama. The sole surviving manuscript of the ‘Prithvirajvijay Mahakavya’ was discovered written in the Sharda script on Bhojpatra. This epic work comprises 12 cantos and was brought to light by the scholar Georg Buhler in 1875 during his quest for Sanskrit manuscripts in Kashmir. Regrettably, the manuscript has suffered considerable damage, leading to the loss of crucial details such as the author’s name. It’s worth noting that Kashmiri scholar Jayarath cited excerpts from this poetry in his ‘Vimarshini’ around the year 1200 AD, conclusively establishing its composition before that period. Although ‘Prithvirajvijay’ brilliantly chronicles the first Battle of Tarain and Prithviraj’s victory, it conspicuously lacks any account of the second Battle of Tarain and Prithviraj’s subsequent defeat.
The Battles of Tarain, which occurred in 1191 and 1192, marked a significant turning point as they paved the way for Muslim control over Northern India. These intense conflicts unfolded between Mohammad Ghori, originally known as Muizuddin Muhammad bin Sam, hailing from Afghanistan, and Prithviraj III, the valiant Chauhan (also spelled Chahman) Rajput ruler who held dominion over Ajmer and Delhi.
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